नई दिल्ली: ईश्वर केवल पूजा-पाठ से नहीं, भाव और भक्ति से प्रसन्न होते हैं। हिंदू धर्म में ऐसी अनेक कथाएं मिलती हैं जहां भगवान ने जाति, कर्म और सामाजिक स्थिति से परे जाकर अपने सच्चे भक्त को अपनाया। ऐसी ही एक विलक्षण और हृदयस्पर्शी कथा जुड़ी है भगवान जगन्नाथ और एक कसाई भक्त सदन से जो यह सिद्ध करती है कि प्रभु प्रेम में कर्मकांड से ज़्यादा भावनाओं की गहराई को देखते हैं।
जब एक पत्थर बन गया तराजू का भार
कहते हैं, एक गांव में सदन नामक कसाई रहा करता था। उसका काम मांस बेचना था और वह दिनभर तराजू से मांस तौलने में व्यस्त रहता था। एक दिन उसे रास्ते में एक सुंदर गोल पत्थर मिला, जिसे देखकर उसने सोचा, यह तराजू के भार के काम आएगा। वह अनजान था कि वह पत्थर कोई आम पत्थर नहीं, बल्कि शालिग्राम था जिसे भगवान विष्णु का प्रत्यक्ष स्वरूप माना जाता है। सदन ने बिना कुछ सोचे शालिग्राम को तराजू में रख दिया और रोज़ की तरह मांस तौलने लगा।
साधु की चेतावनी और प्रभु की विदाई
कुछ दिनों बाद एक महात्मा उस कसाई की दुकान के सामने से गुजरे, और उन्होंने देखा कि सदन तराजू में मांस के साथ शालिग्राम को भी तौल रहा है यह देखकर उन्होंने उसे टोका और बताया कि वह जिनसे मांस तौल रहा है, वह साक्षात विष्णु स्वरूप हैं। सदन के चेहरे पर पछतावे की लकीरें उभर आईं। उसने हाथ जोड़कर कहा कि उसे इसकी जानकारी नहीं थी। महात्मा ने तुरंत शालिग्राम को वहां से उठाया, उन्हें स्नान कराया, पंचामृत चढ़ाया, फूल-माला पहनाई और एक छोटे मंदिर में स्थापित कर दिया।
मुझे वहां छोड़ आओ जहां प्रेम है
उसी रात भगवान ने महात्मा के स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, मुझे वापस सदन के पास ले जाओ। मुझे वही स्थान प्रिय है। महात्मा ने हैरानी जताई प्रभु, वह तो मांस बेचता है ! अपवित्र स्थान है वहां! इस पर भगवान बोले जहां लोग मुझे इत्र और चंदन चढ़ाते हैं, वहां मुझे संयम मिलता है लेकिन सदन की दुकान पर जब मैं तराजू में झूलता हूं और वह कीर्तन करते हुए रोता है, तो मुझे वहां सच्चा सुख मिलता है वह मेरे नाम से रोता है, और वही प्रेम मुझे प्रिय है।
सदन की भक्ति ने जीत लिया प्रभु का हृदय
सुबह होते ही महात्मा ने शालिग्राम को सदन को लौटा दिया। सदन स्तब्ध रह गया “प्रभु मेरे जैसे पापी के पास क्यों रहना चाहते हैं ? लेकिन जब उसे मालूम हुआ कि स्वयं भगवान ने उसकी भक्ति को स्वीकारा है, तो उसके जीवन की दिशा ही बदल गई। सदन ने अपनी दुकान बंद कर दी, मांस व्यवसाय छोड़ दिया और पूरी तरह भगवान के भजन में लीन हो गया। वह कहने लगा प्रभु, अब जब आप मेरे लिए तड़पे हैं, तो अब मैं भी जीवन भर आपके दर्शन के लिए तड़पूंगा।
प्रेम की खोज में सदन का जगन्नाथपुरी गमन
सदन ने सब कुछ छोड़कर जगन्नाथ पुरी की ओर कूच कर दिया। राहगीरों से रास्ता पूछा, जंगल-जंगल, गांव-गांव भटकते हुए वह उस नगर की ओर चल पड़ा जहां विष्णु स्वयं ‘जगन्नाथ’ रूप में विराजमान हैं।
जब भाव ही बन गया धर्म
यह कथा केवल एक कसाई की नहीं, एक ऐसे भक्त की है जो नियमों से नहीं, प्रेम और समर्पण से प्रभु को पा गया। भगवान ने यह सिद्ध किया कि वे जाति, व्यवसाय या कर्म से नहीं, भक्ति और भाव से जुड़ते हैं।
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